धर्म एवं दर्शन >> भारतीय भाषाओं में रामकथा भारतीय भाषाओं में रामकथाआर. एन. वैद्य
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राम कथा पर एक संग्रहणीय पुस्तक
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उपोद्घात
श्री रामनारायण वैद्य प्रशासनिक सेवा में रहते हुए भी और अनेक रहते हुए भी
और अनेक गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी कभी भी स्वाध्याय
से विरत नहीं रहे। वे निरन्तर संस्कृत साहित्य व दर्शन के गहन अध्ययन में
लगे रहे हैं। इसलिए संस्कृत के एक अच्छे अध्येता ही नहीं, संस्कृत वांग्मय
के निधि के मर्मज्ञ भी हैं। उन्होंने रामकथा की यात्रा पर बहुत परिश्रम
किया है और उसका परिणाम है उनका विशद ग्रन्थ ‘‘भारत
की
विभिन्न भाषाओं में रामकथा’’। इस पुस्तक में केवल सूचनात्मक
विवरण नहीं है। यह विवरण तो साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित
‘‘विश्व रामायण वांग्मय की मंजूषा’’ में प्रकाशित
हो चुका है। वैद्य जी ने तुलनात्मक विवेचन और रामकथा की नई भावनाओं का
पर्यालोचन भी किया है। इस दृष्टि से यह पुस्तक संग्रहणीय हो गई है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘‘राम कथा के मिति जग नाहीं’’ (राम कथा का कोई सीमान्त नहीं है) राम भिन्न-भिन्न कथाओं में वही राम हैं जिन्हें वाल्मीकि ने देखा था। वे तो पहचान में आते हैं पर उनके साथ घटी हुई घटनाएं अनेक रूप लेती हैं। इन सभी रूपों में राम का शील, राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप अक्षुण्ण है। राम इसलिए भारत के ही नहीं, भारत के सांस्कृतिक साझीदार अनेक देशों के नैतिक मानों के विग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हैं और राम के साथ सीता भी अनन्य निष्ठा की प्रतिमान हैं। ये सभी बीते हुए सत्य नहीं, नित्य नूतन भाव के साथ जिए जाने वाले सत्य हैं। राम कथा अकेले राम की ही कथा नहीं, सीता-राम के भाव से भावित अनके सीता राम की कथा हैं। इस कथा के विवर्तमान रूपों का ऐसा उत्तम अध्ययन करके श्री वैद्य ने सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत बड़ा काम किया है। वे साधुवाद के पात्र हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘‘राम कथा के मिति जग नाहीं’’ (राम कथा का कोई सीमान्त नहीं है) राम भिन्न-भिन्न कथाओं में वही राम हैं जिन्हें वाल्मीकि ने देखा था। वे तो पहचान में आते हैं पर उनके साथ घटी हुई घटनाएं अनेक रूप लेती हैं। इन सभी रूपों में राम का शील, राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप अक्षुण्ण है। राम इसलिए भारत के ही नहीं, भारत के सांस्कृतिक साझीदार अनेक देशों के नैतिक मानों के विग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हैं और राम के साथ सीता भी अनन्य निष्ठा की प्रतिमान हैं। ये सभी बीते हुए सत्य नहीं, नित्य नूतन भाव के साथ जिए जाने वाले सत्य हैं। राम कथा अकेले राम की ही कथा नहीं, सीता-राम के भाव से भावित अनके सीता राम की कथा हैं। इस कथा के विवर्तमान रूपों का ऐसा उत्तम अध्ययन करके श्री वैद्य ने सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत बड़ा काम किया है। वे साधुवाद के पात्र हैं।
विद्यानिवास मिश्र
भूमिका
रामायण भारत का राष्ट्रीय महाकाव्य है और उसके नायक राम सर्वोच्च आदर्श
पुरुष। राम कथा का जितना समादर योरोप, अमेरिका, रूस, चीन और जापान में
हुआ, अन्य किसी आख्यान का नहीं। दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ भागों में उसकी
प्रतिष्ठा जातीय महाकाव्य के रूप में रही है, और भारत के आस्तिक परिवारों
में तो इस कथा से सम्बन्धित सभी पात्रों के साथ इतनी समरसता स्थापित कर ली
गयी है कि उनमें से प्रत्येक किसी न किसी रूप में उनके निजी जीवन में
समाहित हो गया है। और अब तो वे सब पृथक-पृथक व्यक्ति नहीं, विशिष्ट सद्भाव
वृत्तियों या गुणों के प्रतीक बन गये हैं। कौशल्या-दशरथ वृद्ध दादी-दादा
की ममता, कैकेयी विमाता की द्विष्ट-दृष्टि, राम पितृत्व, लक्ष्मण भ्रातृ
भक्ति, भरत त्याग और तप, शत्रुघ्न वशंवदता, हनुमान श्रद्धा और शौर्य, रावण
शक्ति एवं दर्प और विभीषण न्याय और विनय की विग्रहवान् मूर्ति के रूप में
प्रतिष्ठित हैं।
यह सब आदि कवि की कल्पना का चमत्कार है। अनेक वर्षों तक इतिहास और पुरातत्त्व के मर्मज्ञों, साहित्य-समीक्षकों और श्रद्धालु धार्मिक-जनों के बीच रामकथा की ऐतिहासिकता को लेकर बहस चलती रही है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने रामायण और महाभारत की कथाओं की वास्तविकता का पता लगाने के लिए दोनों से सम्बन्धित स्थलों का उत्खनन किया किन्तु सरयू और गंगा जैसी कटाव के द्वारा बारबार धारा बदलने वाली नदियों के किनारे बसे होने के कारण अयोध्या और हस्तिनापुर में एक भी पुरावशेष नहीं मिल सका। परन्तु परम्परा रामायण और महाभारत को इतिहास मानती चली आयी है।
इसलिए केवल पुरावशेष न मिल पाने के कारण इन कथाओं की वास्तविकता से इनकार कर पाना भी कठिन हैं। यों भी हड़प्पा-काल के यत्र-तत्र बिखरे अवशेषों को छोड़कर ईसा पूर्व तीसरी शती के पहले का कोई स्मारक आज उपलब्ध नहीं है और रामायण महाभारत से सम्बन्धित स्थल तो उस काल और स्थान की सीमा से बाहर ही हैं। एक मात्र संभावित अवशेष द्वारका नगरी भी दो बार समुद्र में डूब जाने के बाद तीसरी बसायी हुई है। तब रामायण कालीन स्थलों साकेत, अयोध्या, जनकपुर, श्रृंगरेवपुर और लंका के मूल स्थानों को ढूंढ़ निकालना तो अतिदुष्कर ही है। लंका की स्थिति के संबंध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। हाँ, इस बात पर प्रायः विश्व के विद्वान सहमत हैं कि रामकथा का मूल उत्स वाल्मीकि की प्रजा है जिसने आख्यान के मूल यथार्थ में कल्पना के पंख लगाकर उसे इतिहास-काव्य का स्वरूप प्रदान किया।
वाल्मीकि और व्यास चाहते तो इन कथाओं को दूसरा रूप दे सकते थे। नौवीं शती के महान् आचार्य राजशेखर ने कहा है कि यदि राम की कीर्ति और रावण का अपयश लोक में फैला हुआ है तो वाल्मीकि के कारण। वाल्मीकि चित्रकूट दक्षिणपूर्वी तलहटी में स्थित वाल्मीकि नामक ग्राम में उत्पन्न हुए थे। उनके विषय में पण्डितों ने प्रवाद फैला दिया कि वे वाल्मीकि (दीमक या चीटियों की बाँबी) से उत्पन्न हुए थे। बाद में अध्यात्म रामायणने तो उन्हें डाकू ही ठहरा दिया। वह उनका मूल नाम तक ढूंढ़ लाये-रत्नाकर। यह असंभव कल्पना केवल रामनाम की महिमा प्रतिष्ठित करने के लिये की गयी। हर महापुरुष के जीवन में इस प्रकार की बातें जोड़ी जाती रही हैं।
रामायण से पूर्व इस कथा का संकेत भारतीय साहित्य में नहीं मिलता। समीक्षक रामायण का रचना-काल 12वीं से 8 वीं शती ईसा पूर्व मानते हैं। इस कथा से सम्बन्धित दोनों बौद्ध जातक रामायण के कम से कम छह सौ वर्ष के बाद के हैं जबकि जैन-पुराण की कथा तो लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद की है। वाल्मीकि का काल तो निर्विवाद रूप से पाणिनि से पूर्व है। जातक कथाएँ दक्षिण भारतीय बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा सुनी सुनायी बातों के आधार पर लिखी गयी हैं और पउम तरिउ उत्साहातिरेक से भरे उस जैन कवि के द्वारा, जिसका वश चलता तो राम, कृष्ण आदि के समान जगन्नियन्ता परमेश्वर को भी जैनधर्म में दीक्षित करके दम लेता।
वाल्मीकि रामायण के प्रणयन के पश्चात भी रामायण का प्रचार काफी देर से हुआ। उस समय संप्रेषण के साधन सुलभ नहीं थे। दूसरे रामायण का प्रणयन नगरों और सभ्य ग्रामों से दूर उस स्थान पर हुआ था जो ग्राम्य व कान्तार क्षेत्रों का सन्धिस्थल था। उस काल में रचना की प्रसिद्धि का प्रमुख साधन था राजा और उसकी सभा के द्वारा अभिस्वीकृति। वाल्मीकि को यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इसलिए अपेक्षाकृत पश्चात्वर्ती रचना होने पर भी महाभारत तथा उसके पात्रों का उल्लेख भारतीय साहित्य में ई. पू. चौथी शती से मिलने लगता है। व्याकरण के पितामह पाणिनि ने महाभारत के पात्रों का उल्लेख किया है किन्तु रामायण के पात्रों का नहीं। हाँ, रामायण, किष्किन्धा, पम्पा जैसे तत्सम्बन्धित दो चार नामों की व्युत्पत्ति अवश्य दी है।
इस अप्रसिद्धि का कारण राम के पश्चात् अयोध्या में किसी प्रतापी राजा का न होना और पश्चिम में आन्ध्र से लेकर गुजरात तक और शूरसेन जनपदों में वृष्णि यादवों का अभ्युदय था। इसीलिए बलराम और कृष्ण में देवत्व की प्रतिष्ठा हो जाने पर पर भी राम में ईश्वर के आरोप वाली कलाकृतियाँ या साहित्य ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों तक नहीं मिलते। रामायण का पठन-पाठन भी अवध तक सीमित रह गया। वस्तुतः इस काल में याज्ञिक आचार्यों के हावी रहने के कारण ललित साहित्य का प्रणयन ही नहीं हुआ। अवैदिक सम्प्रदायों का सब कुछ त्याग, प्रव्रज्या और कठिन संयम पर आश्रित था। इसलिए बैद्धों और जैनों से सरस साहित्य की रचना की आशा ही नहीं की जा सकती थी। संस्कृत में सरस साहित्य की रचना बौद्धों के महायान सम्प्रदाय के द्वारा मूर्ति-पूजा की ओर अग्रसर होने के साथ हुई। इससे पूर्व वैदिकों और बौद्धों-जैन विद्वानों का सारा ध्यान निवृत्ति और नियन्त्रण पर ही केन्द्रित रहा था।
सरस साहित्य का प्रणयन बौद्ध विद्वान अश्वघोष के साथ प्ररम्भ हुआ। अश्वघोष अयोध्या के निवासी थे और उनका परिवार रामायण का अभिज्ञाता था। रामायण से प्रेरणा लेकर अश्वघोष ने ‘‘बुद्ध चरित’’ लिखा जिस पर राम-चरित्र और रामायण की स्पष्ट छाया है। अश्वघोस के बाद तो रामायणोपजीवी काव्यों की धूम मच गई। पांचरात्र-वैष्णव आन्दोलन के बढ़ते महत्त्व और यज्ञ संस्था की घटती प्रतिष्ठा का प्रभाव कला, साहित्य और संस्कृति पर पड़ना स्वाभाविक था। तो भी कृष्ण-भक्ति की तुलना में रामोपासना का प्रभाव नगण्य ही रहा और जो कुछ था भी वह अवध-काशी के क्षेत्र तक सीमित था। पाँचवी सदी ईसवी से पूर्व राम में ईश्वरत्व के आरोप के प्रमाण कदाचित् उपलब्ध होते हैं। इस काल में उनका राघव राम या दशरथि विशेषणों के साथ उल्लेख मिलता है।
कालिदास, कुमारदास, भट्टि, प्रवरसेन जैसे कवियों और भास, भवभूति, दिङनाग जैसे नाटककारों ने राम के मानवीय रूप को अक्षुण्ण रखा है दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय भाषाओं ने संस्कृति और प्राकृत से पल्ला छुड़ाकर नया रूप ग्रहण किया तो इन भाषाओं में भावना की तुष्टि के लिए संस्कृत से स्वतंत्र भक्ति साहित्य की आवश्यकता हुई। पुराणों ने चौथी शताब्दी में ही अवतारों की कल्पना कर ली थी। भारत का प्रमुख देवता था सविता। इन्द्र और विष्णु उसी के अलग-अलग रूप थे। इन्द्र की कल्पना विष्णु से पहले ही कर ली गयी थी। उनकी प्रतिष्ठा भी विष्णु से अधिक थी। इसलिए विष्णु इन्द्रावरज या इन्द्र के अनुज कहलाते थे। पूजा की दृष्टि से शिव प्राचीनतम हैं। शक्ति या दुर्गा उनकी सहचरी है। ब्रह्मा तो वेद के प्रदाता ही हैं।
इन सब की पृथक प्रतिष्ठा थी। सबसे सम्बन्धित साहित्य था-सौर, ब्रह्म, शैव और देवी या कालिका पुराण। किन्तु वैष्णव आन्दोलन के रेले ने सबको बहा दिया। गुप्त-काल में वैष्णव धर्म को राज्य-सम्मान प्राप्त हुआ। पुराणों के नये संस्करण हुए जिनमें विष्णु को सर्वोपरि ठहराया गया। अवतारों की कल्पना भी इसी प्रकार की गयी कि राम और कृष्ण को विष्णु का पूर्ण अवतार सिद्ध कर दिया गया। कृष्ण की प्रतिष्ठा के लिए महाभारत में द्रौपदी-चीरहरण और गोवर्धन-धारण की कथाएँ गढ़ी गयीं और महाभारत में प्रक्षिप्त कर दी गईं। एकलव्य की कथा भी महाभारत के प्रक्षिप्त अंशों में है। रामायण के शम्बूक् और सीता-निर्वासन वाला उत्तरकाण्ड, बालकाण्ड का 80 प्रतिशत भाग और अयोध्या काण्ड का जाबालोपदेश ये सब बाद में रामायण में प्रक्षिप्त किये गये, यद्यपि यह प्रक्षेपण ईसा की प्रारम्भिक सदियों में ही हो गया था।
छठी सती के लगभग वैष्णव आन्दोलन जो एक बार प्रारम्भ हुआ तो वैदिक संहिताओं और गम्भीर दार्शनिक साहित्य को एक किनारे ढकेल कर घर-घर जा पहुँचा। शताब्दियों से याज्ञिक क्रियाओं और शैव सम्प्रदायों (पाशुपत, कालामुख, लकुलीश, लिंगयात) और शाक्त दर्शन की रुक्षता और नीरसता से त्रस्त समाज किसी ऐसी विचारधारा की तलाश में ही था जो उसकी कोमल भावनाओं और संवेदनाओं को तृप्ति दे सके। जाति-पांति और ऊँच-नीच की भावना तथा आडम्बरों से मुक्त वैष्णव उपासना तपती बालू पर प्रथम वर्षा जल के समान आयी। यद्यपि वह राम कृष्ण दोनों को आराध्य मान कर चली थी फिर भी पलड़ा कृष्ण का ही भारी था। परन्तु राम कथा में काव्यतत्वों की प्रचुरता होने से विवेकशील वर्ग में रामचरित को कहीं अधिक सम्मान मिला।
एकपत्नीव्रत, जनकल्याण और शौर्य के साथ दया, धर्म, विनय आदि में विश्वास रखने वाली जनता ने रामचरित में अपनी-अपनी आयु और स्थिति के अनुसार माता-पिता, बन्धु, सखा, रक्षक, वीर आदि सभी पारिवारिक आदर्शजनों के दर्शन कर लिये। रामायण का कथानक भी अपने में भारत की चारों दिशाओं को समेटे था। केकय जनपद, उत्तर-दक्षिण कोसल, मैथिल प्रदेश, सारा आदिवासी क्षेत्र, नासिक, किष्किन्धा और श्रीलंका का सिंहली भाग नगर और वनवासी जनों का परस्पर मिलन और पश्चात्वर्ती शैव-वैष्णव संघर्ष की पूर्व छाया भी। बस राम की कथा घर-घर में फैल गयी।
यह सब आदि कवि की कल्पना का चमत्कार है। अनेक वर्षों तक इतिहास और पुरातत्त्व के मर्मज्ञों, साहित्य-समीक्षकों और श्रद्धालु धार्मिक-जनों के बीच रामकथा की ऐतिहासिकता को लेकर बहस चलती रही है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने रामायण और महाभारत की कथाओं की वास्तविकता का पता लगाने के लिए दोनों से सम्बन्धित स्थलों का उत्खनन किया किन्तु सरयू और गंगा जैसी कटाव के द्वारा बारबार धारा बदलने वाली नदियों के किनारे बसे होने के कारण अयोध्या और हस्तिनापुर में एक भी पुरावशेष नहीं मिल सका। परन्तु परम्परा रामायण और महाभारत को इतिहास मानती चली आयी है।
इसलिए केवल पुरावशेष न मिल पाने के कारण इन कथाओं की वास्तविकता से इनकार कर पाना भी कठिन हैं। यों भी हड़प्पा-काल के यत्र-तत्र बिखरे अवशेषों को छोड़कर ईसा पूर्व तीसरी शती के पहले का कोई स्मारक आज उपलब्ध नहीं है और रामायण महाभारत से सम्बन्धित स्थल तो उस काल और स्थान की सीमा से बाहर ही हैं। एक मात्र संभावित अवशेष द्वारका नगरी भी दो बार समुद्र में डूब जाने के बाद तीसरी बसायी हुई है। तब रामायण कालीन स्थलों साकेत, अयोध्या, जनकपुर, श्रृंगरेवपुर और लंका के मूल स्थानों को ढूंढ़ निकालना तो अतिदुष्कर ही है। लंका की स्थिति के संबंध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। हाँ, इस बात पर प्रायः विश्व के विद्वान सहमत हैं कि रामकथा का मूल उत्स वाल्मीकि की प्रजा है जिसने आख्यान के मूल यथार्थ में कल्पना के पंख लगाकर उसे इतिहास-काव्य का स्वरूप प्रदान किया।
वाल्मीकि और व्यास चाहते तो इन कथाओं को दूसरा रूप दे सकते थे। नौवीं शती के महान् आचार्य राजशेखर ने कहा है कि यदि राम की कीर्ति और रावण का अपयश लोक में फैला हुआ है तो वाल्मीकि के कारण। वाल्मीकि चित्रकूट दक्षिणपूर्वी तलहटी में स्थित वाल्मीकि नामक ग्राम में उत्पन्न हुए थे। उनके विषय में पण्डितों ने प्रवाद फैला दिया कि वे वाल्मीकि (दीमक या चीटियों की बाँबी) से उत्पन्न हुए थे। बाद में अध्यात्म रामायणने तो उन्हें डाकू ही ठहरा दिया। वह उनका मूल नाम तक ढूंढ़ लाये-रत्नाकर। यह असंभव कल्पना केवल रामनाम की महिमा प्रतिष्ठित करने के लिये की गयी। हर महापुरुष के जीवन में इस प्रकार की बातें जोड़ी जाती रही हैं।
रामायण से पूर्व इस कथा का संकेत भारतीय साहित्य में नहीं मिलता। समीक्षक रामायण का रचना-काल 12वीं से 8 वीं शती ईसा पूर्व मानते हैं। इस कथा से सम्बन्धित दोनों बौद्ध जातक रामायण के कम से कम छह सौ वर्ष के बाद के हैं जबकि जैन-पुराण की कथा तो लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद की है। वाल्मीकि का काल तो निर्विवाद रूप से पाणिनि से पूर्व है। जातक कथाएँ दक्षिण भारतीय बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा सुनी सुनायी बातों के आधार पर लिखी गयी हैं और पउम तरिउ उत्साहातिरेक से भरे उस जैन कवि के द्वारा, जिसका वश चलता तो राम, कृष्ण आदि के समान जगन्नियन्ता परमेश्वर को भी जैनधर्म में दीक्षित करके दम लेता।
वाल्मीकि रामायण के प्रणयन के पश्चात भी रामायण का प्रचार काफी देर से हुआ। उस समय संप्रेषण के साधन सुलभ नहीं थे। दूसरे रामायण का प्रणयन नगरों और सभ्य ग्रामों से दूर उस स्थान पर हुआ था जो ग्राम्य व कान्तार क्षेत्रों का सन्धिस्थल था। उस काल में रचना की प्रसिद्धि का प्रमुख साधन था राजा और उसकी सभा के द्वारा अभिस्वीकृति। वाल्मीकि को यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इसलिए अपेक्षाकृत पश्चात्वर्ती रचना होने पर भी महाभारत तथा उसके पात्रों का उल्लेख भारतीय साहित्य में ई. पू. चौथी शती से मिलने लगता है। व्याकरण के पितामह पाणिनि ने महाभारत के पात्रों का उल्लेख किया है किन्तु रामायण के पात्रों का नहीं। हाँ, रामायण, किष्किन्धा, पम्पा जैसे तत्सम्बन्धित दो चार नामों की व्युत्पत्ति अवश्य दी है।
इस अप्रसिद्धि का कारण राम के पश्चात् अयोध्या में किसी प्रतापी राजा का न होना और पश्चिम में आन्ध्र से लेकर गुजरात तक और शूरसेन जनपदों में वृष्णि यादवों का अभ्युदय था। इसीलिए बलराम और कृष्ण में देवत्व की प्रतिष्ठा हो जाने पर पर भी राम में ईश्वर के आरोप वाली कलाकृतियाँ या साहित्य ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों तक नहीं मिलते। रामायण का पठन-पाठन भी अवध तक सीमित रह गया। वस्तुतः इस काल में याज्ञिक आचार्यों के हावी रहने के कारण ललित साहित्य का प्रणयन ही नहीं हुआ। अवैदिक सम्प्रदायों का सब कुछ त्याग, प्रव्रज्या और कठिन संयम पर आश्रित था। इसलिए बैद्धों और जैनों से सरस साहित्य की रचना की आशा ही नहीं की जा सकती थी। संस्कृत में सरस साहित्य की रचना बौद्धों के महायान सम्प्रदाय के द्वारा मूर्ति-पूजा की ओर अग्रसर होने के साथ हुई। इससे पूर्व वैदिकों और बौद्धों-जैन विद्वानों का सारा ध्यान निवृत्ति और नियन्त्रण पर ही केन्द्रित रहा था।
सरस साहित्य का प्रणयन बौद्ध विद्वान अश्वघोष के साथ प्ररम्भ हुआ। अश्वघोष अयोध्या के निवासी थे और उनका परिवार रामायण का अभिज्ञाता था। रामायण से प्रेरणा लेकर अश्वघोष ने ‘‘बुद्ध चरित’’ लिखा जिस पर राम-चरित्र और रामायण की स्पष्ट छाया है। अश्वघोस के बाद तो रामायणोपजीवी काव्यों की धूम मच गई। पांचरात्र-वैष्णव आन्दोलन के बढ़ते महत्त्व और यज्ञ संस्था की घटती प्रतिष्ठा का प्रभाव कला, साहित्य और संस्कृति पर पड़ना स्वाभाविक था। तो भी कृष्ण-भक्ति की तुलना में रामोपासना का प्रभाव नगण्य ही रहा और जो कुछ था भी वह अवध-काशी के क्षेत्र तक सीमित था। पाँचवी सदी ईसवी से पूर्व राम में ईश्वरत्व के आरोप के प्रमाण कदाचित् उपलब्ध होते हैं। इस काल में उनका राघव राम या दशरथि विशेषणों के साथ उल्लेख मिलता है।
कालिदास, कुमारदास, भट्टि, प्रवरसेन जैसे कवियों और भास, भवभूति, दिङनाग जैसे नाटककारों ने राम के मानवीय रूप को अक्षुण्ण रखा है दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय भाषाओं ने संस्कृति और प्राकृत से पल्ला छुड़ाकर नया रूप ग्रहण किया तो इन भाषाओं में भावना की तुष्टि के लिए संस्कृत से स्वतंत्र भक्ति साहित्य की आवश्यकता हुई। पुराणों ने चौथी शताब्दी में ही अवतारों की कल्पना कर ली थी। भारत का प्रमुख देवता था सविता। इन्द्र और विष्णु उसी के अलग-अलग रूप थे। इन्द्र की कल्पना विष्णु से पहले ही कर ली गयी थी। उनकी प्रतिष्ठा भी विष्णु से अधिक थी। इसलिए विष्णु इन्द्रावरज या इन्द्र के अनुज कहलाते थे। पूजा की दृष्टि से शिव प्राचीनतम हैं। शक्ति या दुर्गा उनकी सहचरी है। ब्रह्मा तो वेद के प्रदाता ही हैं।
इन सब की पृथक प्रतिष्ठा थी। सबसे सम्बन्धित साहित्य था-सौर, ब्रह्म, शैव और देवी या कालिका पुराण। किन्तु वैष्णव आन्दोलन के रेले ने सबको बहा दिया। गुप्त-काल में वैष्णव धर्म को राज्य-सम्मान प्राप्त हुआ। पुराणों के नये संस्करण हुए जिनमें विष्णु को सर्वोपरि ठहराया गया। अवतारों की कल्पना भी इसी प्रकार की गयी कि राम और कृष्ण को विष्णु का पूर्ण अवतार सिद्ध कर दिया गया। कृष्ण की प्रतिष्ठा के लिए महाभारत में द्रौपदी-चीरहरण और गोवर्धन-धारण की कथाएँ गढ़ी गयीं और महाभारत में प्रक्षिप्त कर दी गईं। एकलव्य की कथा भी महाभारत के प्रक्षिप्त अंशों में है। रामायण के शम्बूक् और सीता-निर्वासन वाला उत्तरकाण्ड, बालकाण्ड का 80 प्रतिशत भाग और अयोध्या काण्ड का जाबालोपदेश ये सब बाद में रामायण में प्रक्षिप्त किये गये, यद्यपि यह प्रक्षेपण ईसा की प्रारम्भिक सदियों में ही हो गया था।
छठी सती के लगभग वैष्णव आन्दोलन जो एक बार प्रारम्भ हुआ तो वैदिक संहिताओं और गम्भीर दार्शनिक साहित्य को एक किनारे ढकेल कर घर-घर जा पहुँचा। शताब्दियों से याज्ञिक क्रियाओं और शैव सम्प्रदायों (पाशुपत, कालामुख, लकुलीश, लिंगयात) और शाक्त दर्शन की रुक्षता और नीरसता से त्रस्त समाज किसी ऐसी विचारधारा की तलाश में ही था जो उसकी कोमल भावनाओं और संवेदनाओं को तृप्ति दे सके। जाति-पांति और ऊँच-नीच की भावना तथा आडम्बरों से मुक्त वैष्णव उपासना तपती बालू पर प्रथम वर्षा जल के समान आयी। यद्यपि वह राम कृष्ण दोनों को आराध्य मान कर चली थी फिर भी पलड़ा कृष्ण का ही भारी था। परन्तु राम कथा में काव्यतत्वों की प्रचुरता होने से विवेकशील वर्ग में रामचरित को कहीं अधिक सम्मान मिला।
एकपत्नीव्रत, जनकल्याण और शौर्य के साथ दया, धर्म, विनय आदि में विश्वास रखने वाली जनता ने रामचरित में अपनी-अपनी आयु और स्थिति के अनुसार माता-पिता, बन्धु, सखा, रक्षक, वीर आदि सभी पारिवारिक आदर्शजनों के दर्शन कर लिये। रामायण का कथानक भी अपने में भारत की चारों दिशाओं को समेटे था। केकय जनपद, उत्तर-दक्षिण कोसल, मैथिल प्रदेश, सारा आदिवासी क्षेत्र, नासिक, किष्किन्धा और श्रीलंका का सिंहली भाग नगर और वनवासी जनों का परस्पर मिलन और पश्चात्वर्ती शैव-वैष्णव संघर्ष की पूर्व छाया भी। बस राम की कथा घर-घर में फैल गयी।
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